Monday 24 January 2011

एक सामाजिक मुलाक़ात

तुम खिसियाए से कुछ बात उठाते हो
और हम दोनों ठठाकर हंस पड़ते हैं
मैं अपनी कोहनी निहारता हूँ,
कान खुजाता हूँ,
पैर हिलाता हूँ,
पास बैठे अजनबी को घूरता हूँ
फिर डरते डरते तुम्हारी ओर देखता हूँ,
तब तक तुम्हे अगला चुटकुला याद आ गया है,
मैं राहत के साथ उसे लपक लेता हूँ
हम बारी बारी से मौसम को गलियाते हैं,
तुम खींसे निपोरते हो, मैं खिखियाता हूँ..
और हम बरसाती जमे पानी पर जमाई गयी
ईंटों की तरह कूद कूद कर बात-चीत में
आ गए असहज सन्नाटों को पार करते हैं..
फिर आखिरकार हमें वह ऐतिहासिक काम
याद आ जाता है, जो हमारी मदद के लिए
अरसे से कोने में छपा था...
और घड़ी देखते हुए हम विदा लेते हैं..
चाशनी सी मुस्कान लिए..
मैं पीछे मुड़कर देखता भी हूँ,
कभी कभी तुम्हारी परछाई को
और घर की ओर रपटते हुए सोचता हूँ
कि अगर प्याज की तरह हमारे छिलके उतर जाएँ
तो क्या हम दोनों एक दुसरे की गंध बर्दाश्त कर पाएंगे?

No comments:

Post a Comment