Wednesday 8 August 2012

बाढ़-टूरिज्म

देखा है किसी शहर को डूबते हुए?
चौखटों, आंगनों, दीवारों, 
किलकारियों, झल्लाहटों को 
'गड़प' से मटमैले पानी में 
गुम हो जाते देखा है?
सर पर बर्तन-भांडे, संसार
का बोझ लिए लड़खड़ाती औरतों को देखा है?
लाइन में लग बासी पुरियों और सड़े आलुओं की सब्जी
लेते स्कूल ड्रेस में खड़े बच्चे के कीचड खाए पैरों को देखा है?
देखा है गौमाता की सडती लाशों पर बैठे
कौओं की उत्साह भरी छीना-झपटी को?
आलआउट, एसी, से भगाए मच्छरों के झुण्ड को
रिलीफ कैम्प, बियांड बिलीफ कैम्प की ओर
कॉम्बैट फार्मेशन में बढते हुए देखा है?
देखा है उल्टी करते हुए बड़े गौर से
सरकारी अस्पताल के आँगन में
कोने में पडी पान की पीक को?
देखा है ऊपर मंडराते हेलीकाप्टर को,
उसकी खिड़की में से भोपाल से उड़कर आये
'किसान-पुत्र' को झांकते हुए देखा है?
नर्मदा के आवारा बेटे होशंगाबाद
का अपनी माँ के हाथों
गला घुंटते देखा है?
देखा है विकास को नंगा होते देखा है?
देखा है कल और आज को सरेआम लुटते देखा है?
चलो आज दिल्ली से दक्खिन की ओर
चलो आज आशा के अंतिम छोर
मोटरबोटों, तस्वीरों की चीखों के पार,
डूबती फसलों, तैरती गलियों के पार,
वादों, दावों, करिश्मों के पार,
भरम, मस्ती, मोहभंग के पार,
देखो क्या कोई बच पाता है,
देखो सामने कौन खिलखिलाकर
खींचे लिया आता है,
बाढ़, बाढ़, बाढ़.







(दिनांक 08-08-12 को जबकि होशंगाबाद में नर्मदा तबाही मचा रही है, और मैं/हम असहाय ख़बरें पढ़ रहे हैं, सन्न हैं, दिमाग कुंद है, तस्वीरें दो दिन पहले होशंगाबाद में ली गयी हैं )

Tuesday 24 April 2012

अकेलेपन के मायने

अकेलेपन के मायने  

अकेलेपन के मायने कई होते हैं.. 
कुछ परिचित गानों का बार बार गुनगुनाना 
कुछ राह चलते खुद से बतियाना 
कुछ ताकना जाने अनजाने चेहरों को गौर से 
कुछ नजरें चुराना कईयों से 
कुछ भीड़ में भी गुम रहना 

कुछ डूबा रहना किताबों में, किस्सों में 
खयालों में, खयाली पुलावों में
रह रह कर उमडना-घुमडना,
बरसने का इंतज़ार करना,
बेमतलब मुस्कुराना सोच सोच
अपने ही चुटकुले,

अपनी आदतों में घुसते जाना-
जैसे कछुआ ढोता है
अपने ही पलायन की गुफा
अपनी पीठ पर,

झल्लाना-झुंझलाना आईने पर,

मुद्दई और गवाह खुद होना,
खुद ही जज बन अपने मुकद्दमों
को तारीख न देना हफ्ते दर हफ्ते,
तकरीरों औ मशवरों का कूड़ेदान होना,
महफ़िलों औ मेलों का सुनसान कोना,

कान उगाना,
मुंह सिलना,

अपने अकेलेपन से कहना
कि तू अकेला ही अकेला नहीं है,
कि अकेले अकेले ही
अकल आ जाती है,
कि आजादी अकेलापन है,

खैर,
अकेलेपन के मायने भी
अकेले बैठे ही समझ आते हैं..

Wednesday 11 April 2012

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं...



आजकल बाज़ार में टूथपेस्ट के नए विज्ञापनों का चलन है.. जो दावा करते हैं कि वे आपके दांतों की 'सेंसेटीवीटी'
याने संवेदना खत्म कर देंगे.. याने ठंडा-गरम खाने-पीने से होने वाली तकलीफ/अहसास खत्म हो जाएँगे. जैसा कि चलन है, एक के बाद और कंपनियों ने भी यह फार्मूला अपना लिया, जैसा कि पुरुषों के गोरेपन की क्रीम से लेकर अभी तक चला आ रहा है. एक कंपनी अपनी तथाकथित मार्केट रिसर्च के बाद जो शिगूफा छोडती है, वो आग की तरह सारे दिमागों तक पहुंचाया जाने लगता है. यह नहीं कि आप ठंडा-गरम कम खाएं और दांतों का ख़याल रखें. उनकी संवेदना ही कुंद कर दी जाएगी..

लेकिन मैं रिमूव सेंसेटीवीटी.. की 'कैचलाइन' सुनकर सोच में पड़ गया. मुझे समझ में आने लगा कि यह सिर्फ दांतों का मामला नहीं है, दरअसल हर किस्म की संवेदनशीलता को खत्म करने का अभियान जारी है.

भावों, खासकर सहानुभूति, पीड़ा, ग्लानि -जैसे तथाकथित 'नकारात्मक' भावों को दबाने के लिए जनाब श्री श्री से लेकर तमाम बाबाओं की दुकानें चलती हैं. कोई माने या न माने.. लेकिन यह इंसान का एक मूल स्वभाव है, कि वो औरों के दुःख से दुखी, द्रवित होता है, साथ ही यह सोचने पर भी मजबूर होता है, कि आखिर क्या कारण है कि इतने लोग इतने बुरे हालत में जी-मर रहे हैं.

लेकिन यह ज़माना देखकर भी न देखने का ज़माना है, इसीलिए सालों से शहर के बीच में रह रहे मजदूरों-कारीगरों की झुग्गियों को अस्सी के दशक से ही उठाकर शहर से बाहर फेंका जाने लगा, ये कालोनियां 'अवैध', 'गंदी', अपराधियों का अड्डा या फिर विकास का अवरोध आदि कई कई नामों से हटाई गयी.. वहीं बिल्डरों के अवैध निर्माण चुपचाप वैध हो गए.. रेसिडेंट वेलफेयर असोसिएशन वगैरह की त्रासदी को मीडिया में भी जगह मिली, पर पिछले दिनों से देखता हूँ कि झुग्गियां तभी सुर्ख़ियों में आती हैं जब वहाँ आग लगती है, जहरीली शराब पीकर लोग मरते हैं या फिर लाठी चार्ज/पथराव होता है.

सौन्दर्यीकरण या शंघाईकरण का मतलब बस यही है कि कांक्रीट के जंगलों में गिने चुने इंसान बचें जो काले शीशों में बंद ठंडी हवा खाते रहें, और उनके गुलाम हमेशा परदे के पीछे रहें.. अदृश्य, मानो किसी आधुनिक मशीन के पुर्जे.. जो बोनट में बंद हैं..

दिल्ली में अस्सी के एशियाड में बड़े पैमाने पर बस्तियों को उजाडा गया.. फ्लाईओवर बने जो जल्द ही बढती कारों के बोझ तले कम पड़ गए.. मजदूर सुबह शाम खचाखच भरी बसों में लथपथ दो तीन घंटे सफर कर काम करने जाते और लौटकर अपने दस बाय बारह के दडबे में सो जाते, जहां पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चीज़ों के भी सपने ही पाए जाते. इस तरह शहर का वो थोड़ा बहुत आम चेहरा टूटा जो पुरानेपन की पहचान था, जब गरीब भी अमीर के मोहल्ले में दुआ-सलाम कर रहा करता था, ये आधुनिक अपार्थाइड था.. अब शहर खास थे.. शहर के कुछ हिस्से खास थे. जहां कृष्णों को सुदामा पर मेहरबानी करने की भी जहमत नहीं उठानी पड़ती थी. सुदामा को अपहरण कर गायब कर दिया गया ताकि कृष्ण की मौज में खलल नहीं पड़े..

अभी कामनवेल्थ खेलों में तो सरकार ने झुग्गियों के सामने बड़े बड़े परदे-होर्डिंग लगवा दिए, ताकि हमारे नफीस मेहमानों को हमारे जाहिल देशवासी दिखाई न पड़ें, ताकि महाशक्ति बनाने के ख्वाब पर फटे तलवों, पसीने और निराश निगाहों के दाग न लगें, ताकि दक्षिण दिल्ली की चिकनी सड़कों पर दौडती लक्झरी कारों और पंचसितारा होटलों में मयनोशी करते अमीरजादों में ही हिन्दुस्तान की परछाई नुमाया हो. यह बात अलग है कि इन खेलों को देखने कोई आया ही नहीं और इस बहाने बहुत से होटल वालों को सस्ती ज़मीन मिल गयी.

तो यह तय है कि हमारे समय में संवेदना की जरूरत और अस्तित्व को खत्म करने की पुरजोर कोशिश जारी है, डाक्टर और बाबा सलाह देते हैं कि हमेशा खुश रहो, पाजीटिव सोचो, बल्कि सोचो ही मत तो सबसे अच्छा.. अपने घर-दफ्तर और बाजार में बस अगले प्रमोशन, अगली छुट्टी, अगले मोबाइल, अगली फिल्म, अगले चुटकुले का इंतज़ार करो. अगर सड़क पर, गली में, फुटपाथ पर या बस की खिड़की से कुछ ऐसे लोग दिखाई पड़ जाएँ जो कुछ अजनबी से हों, जिन्होंने ब्रांड के कपडे नहीं पहने हों, या जो खिली खिली क्रीम छाप त्वचा के मालिक नहीं हों, जिनकी आँखों में अभी भी कमरे के किराए और माँ की बीमारी और गाँव की फसल की चिंता हो, तो समझ लो कि वह सीनरी का हिस्सा है, बल्कि वह तुम्हारे मनोरंजन-विविधता के लिये ही वहाँ खडा किया गया है. कि वो जहां हैं वहीं खुश है, कि वे उसी लायक है, कि उनकी किस्मत में वही लिखा है, कि वो इसीलिए नहीं मुस्कुराते क्योंकि वे कोलगेट नहीं कोयले से दांत मांजते हैं. कि वे इंसान नहीं खच्चर हैं..

जी हाँ यह संवेदनाओं का कब्रिस्तान है मेरा देश, यह समय छोटी याददाश्त और टुच्चे सपनों का समय है. जब कानों में हेडफोन लगे हैं और चीख-पुकार सुनाई नहीं देती, न ही खौफनाक मंज़र दिखाई पड़ते हैं फैशनेबुल धुप के चश्मों में. पांच हज़ार लोग भूख हड़ताल पर बैठते हैं, जो देशद्रोही हैं, जो विकास विरोधी हैं, जो 'एंटीला' जैसे बंगलों को बिजली देने के लिए अपने भविष्य की कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं..

नोंनाडांगा में माँ माटी और मानुष वाली नेत्री.. उक्त तीनों पर हमला करती है, दो सौ बेघर परिवार, जो अपनी तारपलीन की झुग्गियों में तूफ़ान से उजड जाने के बाद रह रहे थे.. उजाड दिए जाते हैं, यकायक, उनके पास कागजात नहीं है, लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि वो अमीर-जात नहीं हैं.. वो रिक्शा खींचने, बर्तन मांजने, ईंट धोने वाले हाथ हैं, वो 'हीरा है सदा के लिए ', पहनने वाले और वैक्सिंग करवाने वाले हाथ नहीं हैं. कुछ हाथ और भी उठे इनका साथ देने को.. लेकिन हथकडियां अब तैयार बैठी हैं, क़ानून बन चुके हैं.. जो हाथों को उठने से रोकते और सलाम करने पर मजबूर करते हैं.

मुझे ठंडा-गर्म महसूस होता है अब भी, मेरी रगें सनसना उठती हैं.. मैं हर एक को झकझोर कर कहना चाहता हूँ, ऐसा टूथपेस्ट-क्रीम मत लगाना कि, किसी उजड़ते हुए परिवार को देखकर रोना न आये, कि किसी पिटते हुए मजदूर को देखकर गुस्सा न आये, कि किसी लड़ते हुए किसान को देखकर प्रेरणा न मिले .. ऐसे मत बन जाना कि हमारे सामने ये देश, समाज, लोग खत्म किये जाते रहें.. कि न्याय, समता, इंसानियत सब विज्ञापन बन कर रह जाएँ जो चमकती दीवारों पर सजे हों, जिनके नीचे लाशों पर बाजार के फूल खिलें हो, और हम खड़े शून्य में ताकते रहें या मौज मनाते रहें. अभी भी समय बाकी है, अभी भी लड़ाई जारी है..
मुक्तिबोध के शब्दों में -
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध...

फोटो नोनाडांगा के विस्थापितों की एक तस्वीर है जो 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका से ली गयी है,

Thursday 5 April 2012

गाँवों-कस्बों के लोग

गाँवों-कस्बों के लोग

इंग्लिश सुन सुन कुछ घबराते
गाँवों-कस्बों के लोग
तेल चुपड़कर बाल बनाते
गाँवों कस्बों के लोग,
हरदम गर्दन खूब घुमाते
गाँवों-कस्बों के लोग.
इधर घूरते उधर ताड़ते
सब कुछ नया नवेला पाते.
खुद को निपट अकेला पाते
दौलत पर पलकें झपकाते
गाँवों कस्बों के लोग.
दृश्य नया संसार नया है,
ये शहरी दरबार नया है,
निर्मम कारोबार नया है
इज्जत का आधार नया है,
देश नया ये भेष नया है
काले गोरे बन बैठे हैं
गोरे मन-दर-मन बैठे हैं
मॉल में जा और कॉफी पी
ढाबा है नाकाफी, पी !
हाथ हिला हिला कर बोल
यू आर वेरी गोल मटोल,
बातें हो सिंगापुर की
यूएस की शंघाई की
देश की हों भी अगर
मानो हो अजायबघर,
सुन सुनकर बहुत चकराते
गाँवों कस्बों के लोग.
बातचीत में बोलचाल में
रंग-ढंग में देखभाल में
अपना -सा कुछ न मिलने पर
अपनी हालत पर झुंझलाते
गाँवों कस्बों के लोग,
शायद यही तो नियति है
जो थोथा है -वो प्रगति है
बिक न सके जो, माल बुरा है
हम जैसों का हाल बुरा है,
अक्षम चिंताओं को ढोते
गाँवों-कस्बों के लोग,
वे जो मदमस्त हो लोटें
'मैं' की धुन में अमृत घोंटें
जिनका जीवन स्वर्णजडित है
फिर भी जो सौंदर्य रहित है
धीरे धीरे खुद को खोते
'उनके' जैसा होते होते
इक दिन खुद को कहीं न पाते
गाँवों कस्बों के लोग.

Sunday 19 February 2012

जनरल नालिज

जनरल नालिज

वह रट रहा है,
वह रट रहा है बासी कानूनों के पास होने की तारीखें,
गुमनाम देशों की राजधानियां,
कोरे सिद्धांत,
थोथे दृष्टान्त.
अनगिनत आंकड़े जकड़े हुए,
वह भूल रहा है
लोग,यादें,शक्लें,
बातें, मुद्दे, बहसें,
गीत,कविता,किस्से,
आँखें, हाथ, मस्से..
वह रट रहा है,
अखबारी तकरीरें,
सरकारी तदबीरें,
जंग खाई जंजीरें,
वही भाषा,
वही आशा,
इम्तेहान दर इम्तेहान,
वह गर्दन झुकाए रट रहा है,
किसी उपनगरीय दड़बे में
मैगी और खिचड़ी
या ढाबे के पराठों को निगल-निगल दोहराता है
तथ्य तथ्य और तथ्य.
जी के,
जनरल नालिज,
'सामान्य' ज्ञान !
हम असामान्य हैं,
हम दुखी हैं,
हम बेरोजगार हैं,
हम रटते नहीं हैं,
सरकार से पटते नहीं हैं,
बाबूजी दुखी हैं,
लोग ताना देते हैं,
बस !
अब ...
हम सवाल नहीं करेंगे,
हम अंड-बंड नहीं पढेंगे,
बस योजना, क्रानिकल,
दर्पण, और कुछ अखबारों में
हम अंगरेजी के कठिन शब्दों को अंडरलाइन करेंगे,
हां, हम भूल जायेंगे,,
अपनी भाषा,
अपने लोग
अपनी समस्या,
अपनी पहचान,
वह सब कुछ जो कोर्स मटेरिअल
में नहीं आता है,
जी. के. में वही आता है
जो दिल में नहीं आता.
तेरी-मेरी, चार लोगों की बातें,
मोहल्लों के इतिहास,
गाँवों के मसले,
बस्तियों की बतकही
खेतों की फसलें
पानी और बिजली
बुखार और खुजली
अपनी इबारतें
सपनों की इमारतें....
इन सब पर एक अदद नौकरी भारी है.
इसलिए अब 'सामान्य ज्ञान'
के फावड़े से
अपनी जड़ खोद कर वहाँ
चार विकल्प दे देंगे
ए. अफसर.
बी, बाबू
सी. क्लर्क
डी. रोबोट !

,

Sunday 5 February 2012

एक खोजी अभियान की भूमिका


बातें जो कही नहीं गयी..
वादे जो निभाए नहीं गए,
सपने जो देखे नहीं गए..
लोग जो ढूंढें नहीं गए.
कहानियाँ जो सुनायी नहीं गयीं.
और कविताएँ जो गले में आकर अटकी,
फिर किसी अकेले पेड़ के नीचे बैठी रह गयीं.
और कहा जा रहा है, मैं 'नेगेटिव' सोचता हूँ.
सच तो ये है कि मैं नेगेटिव नहीं सोचता,
नेगेटिव मुझे सोच रहा है.
एक दिन मैं परछाइयों से गुजर रहा था,
वहीं नेगेटिव ने मुझे पकड़ लिया
और तब से वह मेरे कानों में फुसफुसाए जा रहा है,
हर एक मुनादी के बाद
वह आवाज़ तेज हो जाती है..
अब मैं और नेगेटिव, नेगेटिव और मैं
हम भेष बदलते रहते हैं,
अब मैं उजालों से दूर झुरमुटों में चलता हूँ,
अब मैं समय की पगडंडी की धूल छानता हूँ
शायद कोई सुराग मिल जाये
कहाँ गए वो लोग, वादे, सपने, कहानियां, कविताएँ,
नेगेटिव ने मुझसे कहा है,
कि इन गुमनामों में ही मेरी पहचान की चाबी छुपी है..
तुम्हे पता लगे तो बताना,
आखिर सवाल मेरा नहीं
अंधेरों का है,
सन्नाटे का,चुप्पी का है,
डर का है,
गुस्से का है
और कहीं ज्यादा
सवाल सच का है
जो खुद बहुरूपिया बने
किसी पीछे छूट गए हरकारे की राह तक रहा है,
सहमा सा .