Sunday 12 June 2016

जे एन यू में राजकीय दमन : एक आँखों देखी (भाग 1)

यह लेख/रपट जल्दी में एक मराठी अखबार के लिए लिखी थी, दस मार्च के आसपास, वहां तो छप नहीं पायी, मैनेजमेंट का दबाव रहता है, तो सोचा यहीं पर डाल देता हूँ. देर से ही सही - इकबाल 

    10 फरवरी की रात, दस दिन तक मध्यप्रदेश के एक छोटे कसबे रामपुरा के आसपास के गाँवों में सर्वे करने के बाद विदाई की बेला में हम युवा साथी गा-बजा रहे थे. अचानक दोस्त संदीप ने कहा ‘अरे इकबाल भाई, आपके जे एन यू में क्या हो गया?’ मैं कई दिनों से समाचार माध्यमों से कटा हुआ था- मेरे पास स्मार्टफोन, व्हाट्सऐप वगैरह भी नहीं हैं.  इसलिए मैं चौंका – मैनें कहा – ‘’क्या हुआ है भाई?’’ तो उसने कहा कि वहाँ कुछ बहुत गलत हो रहा है, देश को तोड़ने की बात हो रही है, देशद्रोह हो रहा है. मैंने पूछा ‘कैसे पता?’ तो उसने कहा कि मीडिया में वीडियो चल रहा है, अफज़ल गुरु के लिए कार्यक्रम हुआ है वगैरह. मैनें इसे ज्यादा तूल नहीं दिया, क्योंकि इससे पहले भी मीडिया के कुछ हिस्सों में जे एन यू को लेकर दुष्प्रचार चलता रहा है, व पहले भी एबीवीपी अनेक कार्यक्रमों में हंगामा करती रही है. 
(फोटो इन्डियन एक्सप्रेस से)

अगले दिन तक फेसबुक एवं अन्य माध्यमों से मुझे धीरे धीरे समझ में आने लगा कि कैसे इस घटना ने एक सुनियोजित अभियान का रूप ले लिया है. टीवी चैनलों पे एकतरफा हमले होने लगे, पूरे जे एन यू को देशद्रोहियों का ‘अड्डा’ और आतंकवादियों का ‘गढ़’ बताने के लिए मीडिया कर्मी, चिल्लाने लगे. जो छात्र अपनी बात रखने स्टूडियो पहुंचे उन्हें सुना नहीं गया और वहीं फैसला कर दिया गया कि वे जो कह रहे हैं वह देशद्रोह है. कुछ वीडियो, उनके संपादित हिस्से बार बार चलाये गए, जिनमें से ज्यादातर बाद में तोड़े-मरोड़े हुए निकले. चूंकि चैनलों का मैनेजमेंट सत्ता और बाज़ार के मुनाफे के संतुलन पर टिका होता है, उन्हें यह मौका ठीक लगा एक ऐसे समूह पर हमला बोलने का, जिसकी आवाज़ बाज़ार और सत्ता के खिलाफ बुलंद हो रही थी.

12 तारीख को ट्रेन में दिल्ली जाते हुए, मेरा दिल बैठा जा रहा था; मैं देख चुका था कि चैनल मेरे विश्वविद्यालय के प्रति एक उन्माद का माहौल बनाने में सफल रहे हैं. लोगों की आपसी बातचीत में ‘जेएनयू’ और ‘देशद्रोह’ जैसे जुमले सुनने को मिल रहे थे. तब अचानक लैपटॉप में फेसबुक से पता चला और फिर मैनें घबराहट में अनेकों दोस्तों को फ़ोन लगाए – कि कैम्पस में पुलिस की रेड हो रही है, सादे भेष में पुलिस वाले पूरे कैम्पस में फैल गए हैं, अनेकों होस्टलों में छापे पड़े हैं – हमारे छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को पुलिस उठाकर ले गयी है. विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस को खुला आमंत्रण दिया है और छात्रों के नाम-पते भी सौंपे हैं. मेरे दिमाग में एक ही शब्द गूंजने लगा – ‘आपातकाल’, क्यूंकि इसी कैम्पस के किस्से अपने पिता (वे यहीं पढ़े थे) और उनके दोस्तों से सुनते हुए मुझे पता चला था कि आपातकाल में कैसे पुलिस रातों रात छपे मारकर छात्रों को गिरफ्तार कर लेती थी और उन्हें भागकर इधर उधर छुपना पड़ता था. भय और अविश्वास का माहौल पूरे कैम्पस पर छाया रहता था, आज शायद फिर वैसी ही घड़ी आयी थी. मैनें अपनी मां को फोन किया और अपने डर और गुस्से के बारे में बताया. मेरी मां, जो खुद एक कार्यकर्ता है और देश दुनिया के मामलों पर पकड़ रखती है, उतनी ही गुस्सा हुई जितना मैं, उन्होंने कहा ‘क्या मुझे भी वे गिरफ्तार कर लेंगे? मैं भी कई बातों पर अलग राय रखती हूँ.’

अनेकों फोन आये, मुझसे पूछा गया कि क्या हो रहा है? लोगों का गुस्सा और असमंजस मुझ तक पहुंचा जिसका मैं यही जवाब दे सकता था कि अभी तो मैं ट्रेन में हूँ. कैम्पस में जिसे भी फोन किया वह यही बता पाया कि कन्हैया गिरफ्तार हो गया है, और छापे पड़े हैं. इससे ज्यादा जानकारी किसी को नहीं थी.

 मन ही मन हैरान परेशान मैंने किसी तरह रात काटी और सुबह 13 तारीख को जे एन यू पहुंचा. फिर बात करते – करते, शाम को प्रशासनिक भवन पहुँचने तक बातें साफ़ हुईं. उस दिन कुछ नेता भी पहुंचे, कैम्पस के बाहर से, अखबारों में ख़बरें पढीं, चैनल तो न देखने का फैसला मैं ले चुका था. ये पता चला कि नौ फरवरी को एक कार्यक्रम - वहाँ एबीवीपी के हंगामे, उसकी शिकायत पर भाजपा सांसद के किये ऍफ़ आई आर और सबसे ज्यादा मीडिया के अभियान के चलते पूरे जे एन यू को बंद करने की मांग हो रही है, गिरफ्तारियां हुई हैं, देशद्रोह के मुक़दमे दायर किये गए हैं, कन्हैया गिरफ्तार है और बाकी कई छात्र छुपते फिर रहे हैं. जे एन यू के रजिस्ट्रार और उपकुलपति (वीसी) ने आठ छात्रों को जांच से पहले ही निलंबित कर दिया है और एक ऐसी जांच समिति बनायी है जिसमें उनके पसंदीदा लोग हैं, न कि अलग अलग संस्थानों के शिक्षक. मीटिंग में पहुँचने के बार जब वहाँ उमड़ते छात्रों को देखा तो कुछ राहत मिली, बिना किसी अभियान या आह्वान के करीब दो-ढाई हज़ार से ज्यादा छात्र छात्राएं वहाँ जमा थे, (इससे पहले पिछली रात को जे एन यू शिक्षक संघ के आह्वान पर आये जुलूस में भी सैकड़ों छात्र पहुंचे थे). चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. सब रुआंसे और चुप थे, हालांकि नारे जरूर लगाते थे जब छात्रसंघ और हमारे नेता शुरुआत करते. सबके घर से फोन आये थे, मां – बाप ने पूछताछ की थी और डांटा था, (कई छात्रों की घरवालों से बातचीत बंद हो गयी) पढ़ाई –लिखाई ठप पडी थी, सोशल मीडिया पर गंदी गंदी गालियाँ पड़ रही थीं. अगर आप जे एन यू से हैं, तो फिर आप वामपंथी हों, समाजवादी हों, या कांग्रेसी, या दक्षिणपंथी, आप राजनैतिक हों या करियर पर ध्यान देने वाले, लड़के हों या लडकी, घटना की जानकारी हो या न हो; कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं था, आप देशद्रोही घोषित कर दिए गए थे. आपकी यूनिवर्सिटी को बंद करने की मांग न केवल सोशल मीडिया बल्कि अखबारों में कई ‘विचारक’ करने लगे थे. आपकी पढ़ाई, मेहनत, विचार, सब को एक झटके में ख़त्म कर दिया जाना संभव लग रहा था. यही कारण है कि उस दिन और उसके बाद से हर रोज प्रशासनिक भवन की उन सीढ़ियों पर (जो अब कन्हैया के भाषण के दिखाए जाने के बाद बहुत पहचानी जाने लगी हैं). मैंने बहुत से चेहरों को देखा जो पहली बार किसी राजनैतिक बहस का हिस्सा बनाने आये थे, जो अब तक सिर्फ कक्षाओं और लाइब्रेरी में ही दिखाई देते थे. मैनें शिक्षकों को देखा जो अपनी नौकरियों, और कक्षाओं की चिंता छोड़कर हमारे साथ खड़े थे, मैनें कई कर्मचारियों को भी देखा. सत्ता, मीडिया और राष्ट्रवाद के नाम पर मुनाफा कमाने वाली राजनीति ने एक ही झटके में हम सब को एक तरफ खडा कर दिया था और खुद को दूसरी तरफ. उस दिन के जमावड़े में लगा कि चलो कुछ लोग तो अपने साथ हैं, ऐसा नहीं है कि मैं अकेला ही असहाय, निहत्था कैमरों और पुलिस की बन्दूक की नोक पर खडा कर दिया गया हूँ, मुझे बिना कुछ कहने का मौका दिए बस चिल्लाया जा रहा है ‘देशद्रोही !!’ ‘देशद्रोही !!’ ‘गद्दार!!  (जारी .......) 

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